फिर ज़मीनो आसमाँ पर बोलना है
बोल भी सकता नहीं है ठीक से जो
उसके अंदाज़े-बयाँ पर बोलना है
बेबसी है, बाग़ में यह, बाग़बाँ की
मौसमे गुल में ख़ज़ाँ पर बोलना है
माजरा क्या है भला, क्यों ग़मज़दा कर दुखी हो क्या तुम्हें आहो-फुगां पर बोलना है
ज़ख्म दिल के, खोलकर हमने रखे हैं
जब कहा, दर्दे-निहाँ पर बोलना है
थे बहत्तर, अह्ले-बेयत, जिस में शामिल उस मुक़द्दस कारवाँ पर बोलना है
ख़ामुशी ही से 'रक़ीब' इस बज़्म में अब
ज़िंदगी की दास्तां पर बोलना है
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