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पहले तो बिगड़े समाँ पर बोलना है / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

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पहले तो बिगड़े समाँ पर बोलना है
फिर ज़मीनो आसमाँ पर बोलना है

बोल भी सकता नहीं है ठीक से जो
उसके अंदाज़े-बयाँ पर बोलना है

बेबसी है, बाग़ में यह, बाग़बाँ की
मौसमे गुल में ख़ज़ाँ पर बोलना है

माजरा क्या है भला, क्यों ग़मज़दा हो
क्या तुम्हें आहो-फुगां पर बोलना है

ज़ख्म दिल के, खोलकर हमने रखे हैं
जब कहा, दर्दे-निहाँ पर बोलना है

थे बहत्तर, अह्ले-बेयत, जिस में शामिल
उस मुक़द्दस कारवाँ पर बोलना है

ख़ामुशी ही से 'रक़ीब' इस बज़्म में अब
ज़िंदगी की दास्तां पर बोलना है