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<poem>
करने को बे-वफाई दिखाने को हुस्न है
कहने को उसके पास लुटाने को हुस्न है

इस कमसिनी बदन पर तेरे पैरहन के बाद
भारी अगर है कुछ तो उठाने को हुस्न है

ऐ मक्तब-ए-जुनूँ तेरे दर्जा-ए-इश्क में
पढने को हर्फ-ए-इश्क पढ़ाने को हुस्न है

मुझ पर सिवाय दीदा-ए-तर कुछ नहीं है और
तुम पर तो अपनी बात ज़माने को हुस्न है

हो भी तो तेरे पास ज़माने को हो हुस्न-ए-ताम
क्या है जो मेरे काम ना आने को हुस्न है

सोंधी-सी बू-ए-हिज्र उठी दिल की ख़ाक से
प्यासी ज़मीं पर बूँद गिराने को हुस्न है

इक लापता ख़याल को पैकर में ढालकर
पानी पर कोई अक्स बनाने को हुस्न है
</poem>
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