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<poem>
टूटी हुई कब्रों से सदा आने लगेगी
मैं हाथ उठाऊँगा दुआ आने लगेगी

तुम कितनी ही ज़िन्दा फ़सीलों को उठा लो
मैं चीज़ ही वह हूँ कि हवा आने लगेगी

जिस दश्त में भटकूँगा डगर सामने होगी
जिस सम्त भी देखूँगा ज़िया आने लगेगी

सुनते हुये तू भी नहीं सह पायेगी वह बात
कहते हुये मुझको भी हया आने लगेगी

मैं शाम के सायों की तरह ढलने चलूँगा
रुक-रुक के मुझे कोह-ए-निदा आने लगेगी
</poem>
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