भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
टूटी हुई कब्रों से सदा आने लगेगी / पुष्पराज यादव
Kavita Kosh से
टूटी हुई कब्रों से सदा आने लगेगी
मैं हाथ उठाऊँगा दुआ आने लगेगी
तुम कितनी ही ज़िन्दा फ़सीलों को उठा लो
मैं चीज़ ही वह हूँ कि हवा आने लगेगी
जिस दश्त में भटकूँगा डगर सामने होगी
जिस सम्त भी देखूँगा ज़िया आने लगेगी
सुनते हुये तू भी नहीं सह पायेगी वह बात
कहते हुये मुझको भी हया आने लगेगी
मैं शाम के सायों की तरह ढलने चलूँगा
रुक-रुक के मुझे कोह-ए-निदा आने लगेगी