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<poem>
भुला ही देंगे अगर हम उसूल ग़ज़लों के
तो क्यों ना टूट गिरेंगे ये कूल ग़ज़लों के

ग़ुरूर क्यों ना हो उसको कि उसकी चाहत ने
उजड़ते वन में खिलाये हैं फूल ग़ज़लों के

ऐ महज़बीन तेरी चश्म-ए-नाज से बचकर
हुये हैं देख तो हम तुझको भूल ग़ज़लों के

मुहब्बतों में ये बे-मानियाँ तो चली हैं
कि सारे आम हैं उसके बबूल ग़ज़लों के

ये कौन आह के मेले में खो गया अपनी
ये कौन बिखरा है घर में समूल ग़ज़लों के
</poem>
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