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<poem>
बशर वह टूटती साँसों की डोरी बाँध देता है
किसी के ज़ख़्म पर जो कोई पट्टी बाँध देता है

हुनर है ये कोई करता है दुनिया क़ैद मुट्ठी में
कोई बहते हुए दरिया का पानी बाँध देता है

गजब नेमत ख़ुदा की है क़सम से उस सुखनवर पर
जो बिखरे चन्द लफ्जों में कहानी बाँध देता है

किसी को जब जहाँ की तिश्नगी लगती है अपनी तो
कुएँ पर बाल्टी के साथ रस्सी बाँध देता है

खड़ा है जो अकेला मुद्दतों से सहन में वह ही
शजर बिखरी हुई आँगन की मिट्टी बाँध देता है

उठा लेता है जब अपने ही सर का बोझ पाँवों पर
पिता बेटे को अपने सर की पगड़ी बाँध देता है

निकलकर भूख जब घर से सड़क पर नाचती है तो
सुना है तब नज़र सबकी मदारी बाँध देता है
</poem>
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