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<poem>
जो मसीहा बन रहे हैं मजहबी उन्माद पर
वे कँगूरे सब टिके हैं खोखली बुनियाद पर

दूर रहना आप तो उस भीड़ से ख़ुद ही मियाँ
पल रहे तोते जहाँ हैं हाकिमी इमदाद पर

गर बिछे हैं जाल पाखी घौंसले के पास में
तो नज़र रखना ज़रूरी है हरिक सय्याद पर

आज फिर अहसास उनके जेहन में ज़िंदा हुए
आज फिर आँसूं बहाए हैं दिले बरबाद पर

जुल्म की भट्टी में तपकर हो गया तैयार गर
तो लगाओ चोट जोरों से उसी फौलाद पर

हो रहा है दरबदर इस दौर का इंसांन यूँ
वो लगा करने यकीं ख़ुद से अधिक औलाद पर

आप ही मेरी रुबाई आप ही मेरी ग़ज़ल
शेर कह दूँ सैंकड़ों मैं आपकी इक दाद पर
</poem>
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