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{{KKRachna
|रचनाकार=अभिषेक कुमार सिंह
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<poem>
उलझन के पत्थरों से बनी वीथियों के बीच
ठहरे हुए हैं हम सभी मजबूरियों के बीच

कैसे रखूँ मैं अपने क़दम इनकी देह पर
सुस्ता रहे हैं रास्ते पगडंडियों के बीच

किस्मत की धुन पर रोज़ यहाँ नाचते हुए
हम ढूँढते हैं ख़ुद को ही कठपुतलियों के बीच

इन फासलों का आओ करें दिल से शुक्रिया
हम और पास आ गए हैं दूरियों के बीच

किसका वरण करे यहाँ और किसको छोड़ दे
उलझी हुई है सभ्यता दो पीढ़ियों के बीच

उनकी खनक को रखना सदा ही सँभाल कर
उठती है प्रेम की सदा जिन चूड़ियों के बीच

आया है कोई तुझसा नज़र मुझको बाग़ में
इक फूल हँस रहा है जहाँ तितलियों के बीच
</poem>
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