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10 जुलाई {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=वीरेन्द्र वत्स
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|संग्रह=
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<poem>
आके मंज़िल पे हमने ये जाना
रास्ता ख़त्म ही नहीं होता
लाख अरमान, लाख उम्मीदें
सिलसिला ख़त्म ही नहीं होता
बाद मरने के भी कहाँ-कैसा
सोचना ख़त्म ही नहीं होता
जानो-तन में बसा है वो लेकिन
फासला ख़त्म ही नहीं होता
कितने तूफां उठे हैं राहों में
हौसला ख़त्म ही नहीं होता
आज मुफ़लिस निकल पड़े घर से
कारवां ख़त्म ही नहीं होता
</poem>