भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रास्ता ख़त्म ही नहीं होता / वीरेन्द्र वत्स
Kavita Kosh से
आके मंज़िल पे हमने ये जाना
रास्ता ख़त्म ही नहीं होता
लाख अरमान, लाख उम्मीदें
सिलसिला ख़त्म ही नहीं होता
बाद मरने के भी कहाँ-कैसा
सोचना ख़त्म ही नहीं होता
जानो-तन में बसा है वो लेकिन
फासला ख़त्म ही नहीं होता
कितने तूफां उठे हैं राहों में
हौसला ख़त्म ही नहीं होता
आज मुफ़लिस निकल पड़े घर से
कारवां ख़त्म ही नहीं होता