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12 अक्टूबर {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अमरकांत कुमर
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बगुले-सा धवल पंख स्वप्न-परी आ गई
आंगन के नीम तले ममता निथरा गई।
माँ का वह गोबर से आँगन को लीपना
आस-भरी आँखों का टुकुर-टुकुर दीपना ,
करुणा असीसों में मुदित-मगन दीखना
माँ की ऊँगलियाँ घर ठुमुक-ठमक सीखना ;
वत्सल मुस्कानों की चान्दनी नहला गई। बगुले-सा
जब-जब मैं दूर गया आँगन के आर-पार
दो अँखियाँ आतुर-सी रंभाती द्वार-द्वार ,
फेनिल उच्छ्वास भरे उर लाती बार-बार
और मुझे आँचल से ढाँप दुग्ध धार-धार ;
दुग्ध-स्निग्ध आँचल की महक सिहरा गई।बगुले-सा
बटुए के चिल्लर को बार-बार गिनती थी
बबुआ के गुड़-गुड़िया मोलकर किनती थी,
हर देवी-देवता से मन्नत और विनती थी
उसकी शिराओं में ममता उफनती थी ;
करुणा की भूरत की सूरत निखरा गई। बगुले-सा
उचटों न नींद! मेरी थम जाती साँस है
मैया की खटिया वर्षों से उदास है ,
घर-आँगन-द्वार मगर, उनका एहसास है
पुरइन का पात स्पर्श, हरसिंगार हास है ;
सपने में कई बार आकर दुलरा गई। बगुले-सा
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