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::नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च ।<br>::यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥२॥<br>
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::अज्ञेय ब्रह्म तथापि किंचित, ज्ञेय भी अज्ञेय भी।<br>::अनभिज्ञ न ही नितांत है, नितांत न ही ज्ञेय है॥<br>::अज्ञेय ज्ञेय की परिधि से, प्रभु सर्वथा अतिशय परे।<br>::ज्ञातव्य, ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय की ज्ञात सीमा से परे॥ [ २ ]<br><br>
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<span class="upnishad_mantra">
::प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते ।<br>::आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ॥४॥<br>
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::यह ब्रह्म का लक्षित स्वरूप ही, वास्तविक ऋत ज्ञान है।<br>::अमृत स्वरूपी ब्रह्म तो, महिमा महिम है महान है॥<br>::जो ब्रह्म बोधक ज्ञान शक्ति, ब्रह्म से प्राप्तव्य है।<br>::उस ज्ञान से ही ब्रह्म का ऋत ज्ञान जग ज्ञातव्य है॥ [ ४ ]<br><br>
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