द्वितीय खंड / केनोपनिषद / मृदुल कीर्ति
यदि मन्यसे सुवेदेति दहरमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम् ।
यदस्य त्वं यदस्य देवेष्वथ नु मीमाँस्येमेव ते मन्ये विदितम् ॥१॥
यदि तेरा यह विश्वास कि तू ब्रह्म से अति विज्ञ है।
मति भ्रम है किंचित विज्ञ, पर अधिकांश तू अनभिज्ञ है॥
मन, प्राण में, ब्रह्माण्ड में, नहीं ब्रह्म है ब्रह्मांश है।
तुमसे विदित ब्रह्मांश जो, वह तो अंश का भी अंश है॥ [ १ ]
नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च ।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥२॥
अज्ञेय ब्रह्म तथापि किंचित, ज्ञेय भी अज्ञेय भी।
अनभिज्ञ न ही नितांत है, नितांत न ही ज्ञेय है॥
अज्ञेय ज्ञेय की परिधि से, प्रभु सर्वथा अतिशय परे।
ज्ञातव्य, ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय की ज्ञात सीमा से परे॥ [ २ ]
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः ।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥३॥
अनभिज्ञ उनसे ब्रह्म है, जिसे विज्ञ है कि विज्ञ है।
जिन्हें विज्ञ पर अनभिज्ञ हैं, ऋत रूप में वे विज्ञ हैं॥
ज्ञानी जो ब्रह्म विलीन हैं, उन्हें ब्रह्म ज्ञान का भान क्या ?
ज्ञेय ज्ञाता ज्ञान का उन्हें ज्ञान क्या अभिमान क्या? [ ३ ]
प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते ।
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ॥४॥
यह ब्रह्म का लक्षित स्वरूप ही, वास्तविक ऋत ज्ञान है।
अमृत स्वरूपी ब्रह्म तो, महिमा महिम है महान है॥
जो ब्रह्म बोधक ज्ञान शक्ति, ब्रह्म से प्राप्तव्य है।
उस ज्ञान से ही ब्रह्म का ऋत ज्ञान जग ज्ञातव्य है॥ [ ४ ]
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः ।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥५॥
दुर्लभ दुसाध्य है मनुज जीवन, वेद वर्णित सत्य है।
इसी जन्म में ब्रह्मलीन हो, अमर होने का तथ्य है॥
प्राणी मात्र में, ब्रह्म को, साक्षात जब ज्ञानी करे।
अमृत्व पाकर जन्म मृत्यु, के चक्र से प्राणी तरे॥ [ ५ ]