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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रेम नारायण 'पंकिल'
|संग्रह=
}}
[[Category:कविता]]
<poem>
कैसे भूलूँ प्रिय, कहते थे "ये बड़े लालची हैं लोचन ।
अपलक निहारते तुम्हें न थकते शतधा सहस्रधा क्षण-क्षण।
जब बद्धमाल चूमती गगन अर्भक लोभी बलाक-अवली।
नव विस-किसलय पाथेय चंचु ले धवल राजहंसिनी चली।
तब-तब तुमको देखते-दिखाते नवल इन्द्रधनु खचित गगन।
प्रेयसि! तव इंगित पर ही इन पलकों का प्रसरण-संकोचन।“
लीलाधर! अब किस भाँति जिये बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥58॥
</poem>
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कैसे भूलूँ प्रिय, कहते थे "ये बड़े लालची हैं लोचन ।
अपलक निहारते तुम्हें न थकते शतधा सहस्रधा क्षण-क्षण।
जब बद्धमाल चूमती गगन अर्भक लोभी बलाक-अवली।
नव विस-किसलय पाथेय चंचु ले धवल राजहंसिनी चली।
तब-तब तुमको देखते-दिखाते नवल इन्द्रधनु खचित गगन।
प्रेयसि! तव इंगित पर ही इन पलकों का प्रसरण-संकोचन।“
लीलाधर! अब किस भाँति जिये बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥58॥
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