भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कैसे भूलूँ प्रिय, कहते थे ”ये बड़े लालची हैं लोचन । / प्रेम नारायण 'पंकिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


कैसे भूलूँ प्रिय, कहते थे "ये बड़े लालची हैं लोचन ।
अपलक निहारते तुम्हें न थकते शतधा सहस्रधा क्षण-क्षण।
जब बद्धमाल चूमती गगन अर्भक लोभी बलाक-अवली।
नव विस-किसलय पाथेय चंचु ले धवल राजहंसिनी चली।
तब-तब तुमको देखते-दिखाते नवल इन्द्रधनु खचित गगन।
प्रेयसि! तव इंगित पर ही इन पलकों का प्रसरण-संकोचन।“
लीलाधर! अब किस भाँति जिये बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥58॥