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[[Category:नवगीत]]
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एक फ़ैण्टेसी बुनें आओख़ुद कलेजा पकड़ने लगी बिजलियाँएक फ़ैण्टेसी बुनें आओगीत जो अब तक नहीं गायाहम उसे समझें सुनें आओचोंच में बाज़ की शान्ति की टहनियाँफिर धमाकों में बजने लगी खिड़कियाँ:::हैं रिहर्सल में हमारी आत्माएँरोशनी तो हुई:::और मंचन की नहीं तारीख़ तय हैपर धुआँ हो गई:::बोलने के नाम पर ज़्यादा कहें क्याजिससे लपटें उठीं,:::घुट रहे से शोर की ही चीख़ तय है, एक फ़ैण्टेसी बुनें आओउँगलियों पर ख़ून की बूँदें सजाएँफूल काँटों से चुनें आओवो कुआँ हो गईंख़ुद कलेजा पकड़ने लगीं बिजलियाँ:::नीच ट्रेजडी का कथानक भूल जाएँलोग सोकर उठे:::खुली खिड़की से निहारें आसमाँऔर नारे उठे:::पाँव से ही ये ज़मी नत्थी रहेकुछ लहर में नहीं:::और हम फिर-फिर पुकारें आसमाँसब किनारे उठेतन खुजाने लगीं रेत में कश्तियाँएक फ़ैण्टेसी बुनें आओआ रहे कल पर ज़रा सोचें-विचारेंसिर रुई जैसा धुनें आओ:::वक़्त के होंठ:::कुछ नहीं 'रेडिकल' रहा तो क्या हुआऔर नीले हुए:::बत्तखों जैसी सुबह अब भी सजेलाल आँखें हुईं:::रात दृश्य पीले हुएफिर ज़हर में भी जाग उठती हैं उम्मीदेंधुलीं कुछ नई तल्ख़ियाँ:::दस बजे, ग्यारह बजे, बारह बजेजो हवा थी कभी:::आँधियाँ बो गईएक फ़ैण्टेसी बुनें आओ:::छप्परों-छप्परोंहै लबालब ताल आँखॊं का:::सिसकियाँ बो गईगुनगुना पानी गुनें आओधूल पीने लगीं नीम की तख़्तियाँ
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