भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़ुद कलेजा पकड़ने लगी बिजलियाँ / यश मालवीय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़ुद कलेजा पकड़ने लगी बिजलियाँ
चोंच में बाज़ की शान्ति की टहनियाँ
फिर धमाकों में बजने लगी खिड़कियाँ
रोशनी तो हुई
पर धुआँ हो गई
जिससे लपटें उठीं,
वो कुआँ हो गईं
ख़ुद कलेजा पकड़ने लगीं बिजलियाँ
लोग सोकर उठे
और नारे उठे
कुछ लहर में नहीं
सब किनारे उठे
तन खुजाने लगीं रेत में कश्तियाँ
वक़्त के होंठ
कुछ और नीले हुए
लाल आँखें हुईं
दृश्य पीले हुए
फिर ज़हर में धुलीं कुछ नई तल्ख़ियाँ
जो हवा थी कभी
आँधियाँ बो गई
छप्परों-छप्परों
सिसकियाँ बो गई
धूल पीने लगीं नीम की तख़्तियाँ