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<poem>
तुम ऋतुओं को पसंद करती हो
और आकाश में
किसी-न-किसी की प्रतीक्षा करती हो –
तुम्हारी बाँहें ऋतुओं की तरह युवा हैं
तुम्हारे कितने जीवित जल
राहें घेरते ही जा रहे हैं।
औऱ तुम हो कि फिर खड़ी हो
अलसाई, धूप-तपा मुख लिए
एक नए झरने का कलरव सुनतीं
– एक घाटी की पूरी हरी गरिमा के साथ!
</poem>
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