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ऐनक / हरिओम राजोरिया

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|रचनाकार=हरिओम राजोरिया
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घर में रहता तो आता किस काम
इसलिए चला आया यह भी
बुढ़िया की अन्तिम यात्रा में

सिर के पास आँटी से अटका
चल रहा है अरथी में साथ-साथ
याद दिलाता हुआ उस स्त्री की
जो कुछ घण्टे पहले
निखन्नी खाट पर बैठी
कुतर रही थी सुपारी
और एक झटके में ही चल बसी

बुढ़िया के होठों पर अब भी
पड़ी है जर्दे की पपड़ी
जो धुल नहीं सकी अन्तिम स्नान में
नसेनी में बँधी है उसकी देह
जो धारण करती थी इसे
जरा से खटके पर
टटोलने लगती थी सिरहाने
और झट चढ़ा लेती थी आँखों पर

निर्जीव चीजें भी हो जाती हैं बेसहारा
जैसे बूढ़ी आँखों से
बिलग होकर यह ऐनक.
</poem>