भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ऐनक / हरिओम राजोरिया
Kavita Kosh से
घर में रहता तो आता किस काम
इसलिए चला आया यह भी
बुढ़िया की अन्तिम यात्रा में
सिर के पास आँटी से अटका
चल रहा है अरथी में साथ-साथ
याद दिलाता हुआ उस स्त्री की
जो कुछ घण्टे पहले
निखन्नी खाट पर बैठी
कुतर रही थी सुपारी
और एक झटके में ही चल बसी
बुढ़िया के होठों पर अब भी
पड़ी है जर्दे की पपड़ी
जो धुल नहीं सकी अन्तिम स्नान में
नसेनी में बँधी है उसकी देह
जो धारण करती थी इसे
जरा से खटके पर
टटोलने लगती थी सिरहाने
और झट चढ़ा लेती थी आँखों पर
निर्जीव चीजें भी हो जाती हैं बेसहारा
जैसे बूढ़ी आँखों से
बिलग होकर यह ऐनक.