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गोलमहल / ऋषभ देव शर्मा

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गोल महल में
भारी बदबू,
सीलन औ' अवसाद;
धुप से
टूट गया संवाद .

कुर्सीजीवी कीट
बोझ से
धरती दबा रहे हैं;
मोटी एक किताब,
उसी के
पन्ने चबा रहे हैं;

दरवाज़े हैं बंद
झरोखों तक
मलबे की ढेरी;

दिवा रात्रि का आवर्तन है
चमगादड़ की फेरी;

इसको दफ़न करें मिटटी में
बन जाने दें -
खाद !


</poem>