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गोलमहल / ऋषभ देव शर्मा

169 bytes added, 18:21, 23 अप्रैल 2009
<Poem>
गोल महल में
भारी बदबू, सीलन औ' अवसाद;धुप धूप से टूट गया संवाद।
 
 
कुर्सीजीवी कीट
बोझ से धरती दबा रहे हैं;  
मोटी एक किताब,
उसी के पन्ने चबा रहे हैं;
 
दरवाज़े हैं बंद
झरोखों तक मलबे की ढेरी;
 
दिवा रात्रि का आवर्तन है
चमगादड़ की फेरी;
  इसको दफ़न करें मिटटी में बन जाने दें - खाद !
</poem>