1,321 bytes added,
18:42, 27 मई 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अली सरदार जाफ़री
}}
<poem>
'''नज़्र-ए-अख़्तर-उल-ईमान'''
रही है क़श्तिए उम्रे-रवाँ आहिस्ता आहिस्ता
ख़यालो-ख़्वाब होगा ये जहाँ आहिस्ता आहिस्ता
जो उठता है दिलो-जाँ से धुआँ आहिस्ता आहिस्ता
बुझी जाती है कोई कहक्शाँ आहिस्ता आहिस्ता
-----------------------------------------------
नोटः मर्हूम अख़्तर-उल-ईमान ने अपनी बीमारी के ज़माने में एक नज़्म कही थी, जिसके आख़िरी दो मिस्रे ये थे:
बहे जाती है मेरी कश्तिए-उम्रे-रवाँ आहिस्ता आहिस्ता
ख़यालो-ख़्वाब होता जा रहा है ये जहाँ आहिस्ता आहिस्ता
मैंने इनको एक कत्अः में तब्दील कर दिया है।