भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नज़्र-ए-अख़्तर-उल-ईमान / अली सरदार जाफ़री
Kavita Kosh से
रही है क़श्तिए उम्रे-रवाँ आहिस्ता आहिस्ता
ख़यालो-ख़्वाब होगा ये जहाँ आहिस्ता आहिस्ता
जो उठता है दिलो-जाँ से धुआँ आहिस्ता आहिस्ता
बुझी जाती है कोई कहक्शाँ आहिस्ता आहिस्ता
नोटः मर्हूम अख़्तर-उल-ईमान ने अपनी बीमारी के ज़माने में एक नज़्म कही थी, जिसके आख़िरी दो मिस्रे ये थे:
बहे जाती है मेरी कश्तिए-उम्रे-रवाँ आहिस्ता आहिस्ता
ख़यालो-ख़्वाब होता जा रहा है ये जहाँ आहिस्ता आहिस्ता
मैंने इनको एक कत्अः में तब्दील कर दिया है।