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09:15, 7 जून 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
}}
<poem>
'''पुलक'''
छिटकी पड़तीं
::: उमड़ बदलियाँ
अंबर के आँगन में
ज्यों नचती हों
स्वर्ग-सुघर की
कमिनियाँ
::: कानन में।
टप-टप टपती
टपक रहीं
::: बूँदें
::: शोभित - चमकीली
::: छन-छन करतीं
::: छनकर आतीं
::: पत्तों से
::: आँचल में।
::::: तरु-तल में
::::: भीगे-भीगे से
::::: चहक रहे
::::: रज-बालू
::::: पीते
::::: सौंधापन आपस का
::::: पुलकित मन-पागल में।
ढका
मेघ ने
नभ को पुरा,
दिनकर की
निष्प्रभ
प्रभुता है।
उजलापन
छाया से मिलकर
::: पुलकित होता
कुछ धुमिल
बूँदों की फिसलन
::: बहका जाती
कोमल मृदु-छवि
निरख मुदित-दृग्
तड़ित तकें बादल में।