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<Poem>
प्रकृति की कनिष्ठा सन्तान होने के कारण विश्व की अपेक्षा मनुष्य आयु मे बहुत छोटा है । आज भी उस का जीवन शिशु-सहज कौतुको से भरा है । रूप, नाद, रस, गन्ध तथा स्पर्श के द्वारा उस की ज्ञानेन्द्रियाँ निरन्तर जागरूक हैं । ये ज्ञानेन्द्रियाँ हृदय तथा आत्मा को मोहित करनेवाला वृत्तान्त मनुष्य को सदा सुनाती आयी हैं । यह वृत्तान्त कितना भी लम्बा क्यों न हो मनुष्य की आत्मा को वह कभी बुरा नही लगता। आत्मा को तो इस बात का दुख रहता है कि नयी अनुभूतियों के वृत्तान्त लाने के लिये मनुष्य के पास नयी इन्द्रियाँ नहीं हैं । आत्मामे इस कारण एक प्रकार की असंतृप्ति बनी रहती है ।
ज्ञानेन्द्रियो द्वारा अवगत होनेवाला विश्व मनुष्य के हृदय मे एक कौतुकपूर्ण जिज्ञासा जाग्रत करता है । जब कल्पना, चिन्तन आदि मानसिक प्रक्रियाओ द्वारा प्रकृति का प्रतिबिम्ब आत्मा पर पड़ता होता है तब मनुष्य हृदय मे जाग्रत जिज्ञासा, उस प्रतिबिम्व का विश्लेषण करने तथा उसको संचय करके एक कथावस्तु के रूप मे प्रकट करने के लिए तत्पर हो जाती है । विश्व, विज्ञान तथा कला का यह सजीव स्रोत किसी के भीतर निरन्तर बहता रहता है तो किसी मे तुषार कण की तरह प्रकट होकर विलीन हो जाता है । मेरी आत्मा के किसी उच्च स्तर पर आज भी बहनेवाले उस स्रोत ने ही कदाचित मेरे हृदय मे प्रकृति एवं मनुष्य जीवन को ध्यान से देखने तथा उन का अध्ययन व आस्वादन करने का कौतुक उत्पन्न किया हो । यह आत्मीयता का भाव ही मेरी अकिंचन तथा अपूर्ण कविता का उद्गम है ।