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11:05, 22 जून 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
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'''पर्यटन प्रेम'''
वे आते हैं
हिमलय क्षेत्रों में
घूमने,
पर्यटक हैं वे।
चाहते हैं - मनोरंजन
किंचित परिवर्तन
घर की
रोज़मर्रा की
ज़िन्दगी का
ज़ायका बदलना।
::: प्रकृति .....
::: सर्वस्व सौंपती
::: लुटाती - रूप रंग
::: पूरती है चौक मानो
::: फैलाती भुजाएँ स्वागती। वे
पगडंडियों पर
घूमते-घामते
पहूँचते
किसी पर्वत-शिखर,
छोड़ते हैं
कोमलावलियों पर
अपने संस्पर्श
अपना परिचय
अपनी पहचान
निशान.......।
शिखराग्र का स्पर्श करते ही
उत्तुंग - श्रॄंग से
सूर्योदय-दर्शन के अभिलाषी
पर्यटक हैं वे!
::: हिमशायिनी भूमि पर
::: ऊष्मा खोजते
::: पहाड़ों पर
::: बिन अरुणिमा सूर्योदय भी
::: चाहते हैं देखना।
कैमरों में कैद कर
संस्मरण
ढोते हैं - कंधों पर,
पर्यटक हैं .... वे!
::: सूर्य से न वास्ता
::: नहीं प्रकाश से
::: न दूधिया किरण से
::: वे तो
::: पर्वत-भूमि पर
::: थोड़ी ऊष्मा
::: थोडे़ दृश्य
::: सब बटोरते....
::: पर्यटक हैं....वे!
शिखर
तलहटी, घूमते
रच-बस जाते
प्रकृति में
बदलते जायका
होते तरोताजा
ऊर्जास्वित
लौटते, लौट जाते
अन्ततः......पर्यटक हैं.......वे!
::: यावज्जीवन
::: तुंग-भद्रा पर
::: आने, ठहरने, लौटने के
::: अवशेष
::: जल-धारा में फिसलते
::: पर रहते हैं - शेष।
फिर शीत आते हैं
घिरते हैं जाडे़
बरसता है - हिम
हिमनद कहाँ पिघलता?
ठिठुरती, काँपती, सहमी, सिकुड़ी
जाती जमती
प्रकृति!
::: कहीं और - और जाते हैं
::: घूमने,
::: अस्थायी वासी ही थे
::: पर्यटक भर थे वे
केवल---- पर्यटक
मौसमी!!!
</poem>