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{{KKRachna
|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
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'''तू क्या रोंदे'''


जब थी
चार बरस की
बुआ लाई-गुड़िया
मिट्टी की।

::मैंने संग सुलाया
::तड़के
::संग
::नहलाया।
::धोते-मलते
::हो गई
::कीचड़ गुड़िया
::बह गई
::जल-प्लावन में
::जल-धारा में।

आज,
वे मुझे
और-और माँजते हैं
चाहते हैं
भीतर-बाहर
धुल देना
पुनीत कर देना।
::कीचती जाती हूँ
::और-और
::धुला-धुली में
::बहे जाती हूँ
::जल-धारा में
::गल-गल।

कीचड़ खो-खो
बह जाऊँ तो
धुल जाऊँगी?
कहो, खिलाड़ी!
</poem>