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{{KKRachna
|रचनाकार=सीमाब अकबराबादी
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<poem>
गुनाहों पर वही इन्सान को मजबूर करती है।
जो इक बेनाम-सी फ़ानी-सी लज़्ज़त है गुनाहों में॥

न जाने कौन है गुमराह, कौन आगाहे-मंज़िल है।
हज़ारों कारवाँ हैं ज़िन्दगी की शाहराहों में॥

राहे-मंज़िल में सब गुम हैं, मगर अफ़सोस तो ये है।
अमीरे-कारवाँ भी है, उन्हीं गुमकरदा रोहों में॥

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