563 bytes added,
09:24, 1 अगस्त 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सीमाब अकबराबादी
}}
<poem>
न फ़रमाओ, "नहीं है आदमी में ताबे-नज़्ज़ारा"।
सँभल जाओ अब उठती है निगाहे-नातवाँ मेरी॥
मेरी हौरत पै वो तनकी़द की तकलीफ़ करते हैं।
जिन्हें यह भी नहीं मालूम नज़रें हैं कहाँ मेरी॥
</poem>