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{{KKRachna
|रचनाकार=सीमाब अकबराबादी
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न फ़रमाओ, "नहीं है आदमी में ताबे-नज़्ज़ारा"।
सँभल जाओ अब उठती है निगाहे-नातवाँ मेरी॥

मेरी हौरत पै वो तनकी़द की तकलीफ़ करते हैं।
जिन्हें यह भी नहीं मालूम नज़रें हैं कहाँ मेरी॥

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