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{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=अनकहा / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
<poem>पेड़ के मरने पर भी
जड़ नहीं छोड़ती है
अपनी ज़िद्द।

बार-बार उठती हैं
कोंपलें ठूँठ में
उतनी ही गति से देती है ताकत
जड़ों की पोर-पोर।


पेड़ की हत्या पर
रहती हैं ज़िन्दा जड़ें
कई दिन
धरती के गर्भ में सुरक्षित
बराबर जागती हुई
तना उगने के इंतज़ार में।
</poem>
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