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{{KKRachna
|रचनाकार=साक़िब लखनवी
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मेरी दास्ताने-ग़म को, वो ग़लत समझ रहे हैं।
कुछ उन्हीं की बात बनती अगर एतबार होता॥

दिले पारा-पारा तुझ को कोई यूँ तो दफ़्न करता।
वो जिधर निगाह करते उधर इक मज़ार होता॥

</poem>