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|रचनाकार=बशीर बद्रशाहिद माहुली
|संग्रह= शहर ख़ामोश है / शाहिद माहुली
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बिकने को हम भी आये थे क़ीमत नहीं मिली
हंगाम-ए-रोज़ व -ओ- शब के मशगिल मशागिल थे और भी कुछ कारोबार-ए-जीस्त ज़ीस्त से फुर्सत फ़ुर्सत नहीं मिली
कुछ दूर हम भी साथ चले थे कि यूँ हुआ
कुछ मसअलों पे उनसे तबियत तबीयत नहीं मिली
इक आंच आँच थी कि जिससे सुलगता रहा वजूद
शोला सा जाग उट्ठे वो शिद्दत नहीं मिली
वो बेहिसी थी खुश्क ख़ुश्क हुआ सब्ज़ा -ए -उम्मीद बरसे जो सुबह व -ओ- शाम वो चाहत नहीं मिली
ख़्वाहिश थी जुस्तजू भी थी दीवानगी न थी
सहरानवर्द सहरा-नवर्द बनके भी वहशत नहीं मिली
वह रोशनी थी साए भी तहलील हो गए
आईनाघर में अपनी भी सूरत नहीं मिली
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