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|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
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::सुबह फूलों की महक जग में बिखरती।
 
सैर को निकले हुओं का हृदय हरती।
 
--लड़कियाँ, लड़के, बड़े, बूढे, जवान,
 
लम्बे-तगड़े, छोटे-बौने, पहलवान,
 
प्रेमिकाएँ, पड़ोसी, अफ़सर ,कि हों अनजान,
 
भिखारी के भेस में फिरते हुए भगवान -–
 
सभी में उठती ख़ुशी की एक तान,
 
गूँजता सबमें ख़ुशी का एक गान।
 
बस, तभी अज्ञात-सी कोई लहर आती
 
सभी के कूल मन के भीग जाते,
 
पुलक की बूंदें छहरतीं,
 
घास पर ठिठके हुए जलबिन्दु:
 
पहले काँपते, फिर :
 
मुस्कराकर भूमि में अस्तित्व खो देते :
 
हवा जग में मदिर मधु-गन्ध का संचार करती,
 
और लगता-
 
साँस मानो ले रही है:
 
पेड़-पौधों, फूल-पत्तों, किरनपाशों
 
में बंधी ख़ामोश धरती।
 
सुबह फूलों की महक जग में बिखरती।
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