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14:05, 2 नवम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सियाराम शरण गुप्त
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}<poem>यह रात सहसा आ गई,
नभ में अंधेरी छा गई।
सोना पड़ेगा अब हमें
ये कार्य तज कर सब हमें।
हैं कार्य पूर्ण न एक भी,
किस भाँति सो जावें अभी।
क्या नींद अच्छी आयगी,
यह रात यों ही जायगी।
दु:स्वप्न दुख पहुँचायँगे,
क्या शांति झँप कर पायँगे?
हे नाथ, लें न विराम हम,
दिन भर करें बस काम हम।
सन्ध्या समय एसे थकें,
हम नींद गहरी ले सकें,
जिसमें कि हम फिर जब जगें,
सोत्साह कार्यों में लगें।</poem>