भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मृत्यु भय / सियाराम शरण गुप्त
Kavita Kosh से
यह रात सहसा आ गई,
नभ में अंधेरी छा गई।
सोना पड़ेगा अब हमें
ये कार्य तज कर सब हमें।
हैं कार्य पूर्ण न एक भी,
किस भाँति सो जावें अभी।
क्या नींद अच्छी आयगी,
यह रात यों ही जायगी।
दु:स्वप्न दुख पहुँचायँगे,
क्या शांति झँप कर पायँगे?
हे नाथ, लें न विराम हम,
दिन भर करें बस काम हम।
सन्ध्या समय एसे थकें,
हम नींद गहरी ले सकें,
जिसमें कि हम फिर जब जगें,
सोत्साह कार्यों में लगें।