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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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चुक रहा हूँ मैं। <br> स्वयं जब चुक चलूँ <br> तब भी बच रहे जो बात— <br> (बात ही तो रहेगी!) <br> उसी को कहूँ: <br> यह सम्भावना— <br> यह नियति—कवि की <br> सहूँ। <br> उतना भर कहूँ,: <br> —इतना कर सकूँ <br> जब तक चुकूँ! <br/poem>