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ग़ज़ल / प्रताप सहगल

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'''{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार : =प्रताप सहगल''' }}{{KKCatGhazal‎}}‎<poem>
जब भी तुमने किया गिला होगा
 
इक समन्दर वहीं हिला होगा
 बात कुछ यूं यूँ भी वही और यूं यूँ भी  
अपना ऐसा ही सिलसिला होगा
 
फूल पत्थर में उग के लहराया
 
यार अपना यहीं मिला होगा
 
बन्द घाटी में शोर पंछी का
 
गुल कहीं दूर पर खिला होगा
 
दूर कुछ संतरी खड़े से दिखे
 
किसी लीडर का यह किला होगा
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