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{{KKRachna
|रचनाकार=सौदा
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ढाया मैं तिरे काबे को, तैं मेरा दिल ऐ शैख़
तामीर मैं करूँ उसे, तैं इसको बनावै
ऐ ख़िज़्र, ज़-ख़ुद-रफ़्तगी, क्या तुर्फ़ा सफ़र है
जिसमें कि न भूलें, न कोई राह बतावै
</poem>