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04:29, 17 नवम्बर 2009
{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रमा द्विवेदी}}
प्रेयसी का आज बादल उम़ड रहा है।<br>
उसके ही आस-पास पौरुष सिमट रहा है॥<br><br>
संकीर्णता विचारों की इस क़दर ब़ढने लगी है।<br>
जाने-पहचाने चेहरों में ही वो सिमटने लगी है॥<br><br>
मोह का कोहरा कुछ इस क़दर छाने लगा है।<br>
इंसान जहां से बौना नज़र आने लगा है॥<br><br>
इक्कीसवीं सदी में मानव कुछ ऐसा क़हर ढ़ाएगा।<br>
चांद तो क्या वो धरती से भी उख़ड जाएगा॥<br><br>