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Kavita Kosh से
थाम कर हाथ ये कहती है
मिरे साथ चलो लड़कियाँ
शीशों के शफ्फ़ाफ़ दरीचों पे गिराए हुए सब पर्दों को
अपने कमरों में अकेली बैठी
कीट्स के ओड्स पढ़ा करती हैं
कितना मसरूफ सुकूँ चेहरों पे छाया है मगर
झाँक के देखें
तो आँखों को नज़र आए कि हर मु-ए-बदन
गोश-बर-साज़ है
ज़ेहन बीते हुए मौसम की महक ढूँढता है
आँख खोये हुए ख़्वाबों का पता चाहती है
दिल बड़े कुर्ब से
दरवाजों से टकराते हुए नर्म रिमझिम के गीत के
उस सुर को मिलाने कि सई करता है
जो गए लम्हों की बारिश में कहीं डूब गया
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