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लड़कियाँ उदास है / परवीन शाकिर

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फिर वही नर्म हवा
वही आहिस्ता सफ़र मौज ए सबा
घर के दरवाज़े पे नन्ही सी हथेली रक्खे
मुन्तज़िर है
कि किसी सम्त से आवाज़ की ख़ुशबू आए
सब्ज़ बेलों के खुनक साए से कंगन की खनक
सुर्ख़ फूलों की सजल छाँव से पायल की छनक
कोई आवाज़ बनाम मौसम
और फिर मौज-ए-हवा मौजा-ए-ख़ुशबू की वो अलबेली सखी
कच्ची उम्रों के नए जज्बों की सरशारी से पागल बरखा
धानी आँचल में शफ़करेज़ सलोना चेहरा
कासनी चुनरी बदन भीगा हुआ
पुश्त पर गीले मगर आग लगाते गेसू
भूरी आँखों में दमकता हुआ गहरा कजरा
रक्स करती हुई रिमझिम के मधुर ताल के ज़ेर-ओ-बम पर
झूमती नुकरई पाज़ेब बजाती हुई आँगन में उतर आई है
थाम कर हाथ ये कहती है
मिरे साथ चलो लड़कियाँ
शीशों के शफ्फ़ाफ़ दरीचों पे गिराए हुए सब पर्दों को
अपने कमरों में अकेली बैठी
कीट्स के ओड्स पढ़ा करती हैं
कितना मसरूफ सुकूँ चेहरों पे छाया है मगर
झाँक के देखें
तो आँखों को नज़र आए कि हर मु-ए-बदन
गोश-बर-साज़ है
ज़ेहन बीते हुए मौसम की महक ढूँढता है
आँख खोये हुए ख़्वाबों का पता चाहती है
दिल बड़े कुर्ब से
दरवाजों से टकराते हुए नर्म रिमझिम के गीत के
उस सुर को मिलाने कि सई करता है
जो गए लम्हों की बारिश में कहीं डूब गया