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{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमा द्विवेदी }}{{KKCatKavita}}<poem>घर सिर छिपाने के लिए भी होते हैं, घर रिश्ते बनाने के लिए भी होते हैं। घर क्या-क्या नहीं होता? घर ज़िन्दगी जलानें के लिए भी होते हैं।
घर सिर छिपाने के लिए भी होते हैं, <br>घर रिश्ते बनाने के लिए भी होते हैं।<br>घर क्या-क्या नहीं होता?<br>घर ज़िन्दगी जलानें के लिए भी होते हैं।<br><br>घर में ही जन्नत भी होती है,<br>घर से ही जीवन में रंगत भी होती है।<br>घर में ही ज़िन्दगी सिसकती हैं यहां,<br>घर में ही ज़िन्दगी दफ़न भी होती है॥<br><br>  घर ही नहीं बिकते यहां,<br>इनमें रहने वाले भी बिक जाते हैं।<br>रोज होता है सौदा ज़िन्दगी का यहां,<br>घर में रहने वाले हैवान भी बन जाते हैं॥ <br><br>  घर ज़िन्दगी का रक्षक भी है,<br>घर ज़िन्दगी का भक्षक भी है।<br>घर क्या-क्या नहीं निगल जाता,<br>घर ज़िन्दगी का तक्षक भी है॥ <br/poem>
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