:देखूँ, मंजिल में क्या है।
:::(१५)
चलने दे रेती खराद की,
::रुके नहीं यह क्रम तेरा।
अभी फूल मोती पर गढ़ दे,
::अभी वृत्त का दे घेरा।
जीवन का यह दर्द मधुर है,
::तू न व्यर्थ उपचार करे।
किसी तरह ऊषा तक टिमटिम
::जलने दे दीपक मेरा।
:::(१६)
क्या पूछूँ खद्योत, कौन सुख
::चमक - चमक छिप जाने में?
सोच रहा कैसी उमंग है
::जलते - से परवाने में।
हाँ, स्वाधीन सुखी हैं, लेकिन,
::ओ व्याधा के कीर, बता,
कैसा है आनन्द जाल में
::तड़प - तड़प रह जाने में?
:::(१७)
छूकर परिधि-बन्ध फिर आते
::विफल खोज आह्वान तुम्हें।
सुरभि-सुमन के बीच देव,
::कैसे भाता व्यवधान तुम्हें?
छिपकर किसी पर्ण-झुरमुट में
::कभी - कभी कुछ बोलो तो;
कब से रहे पुकार सत्य के
::पथ पर आकुल गान तुम्हें!
:::(१८)
देख न पाया प्रथम चित्र, त्यों
::अन्तिम दृश्य न पहचाना,
आदि-अन्त के बीच सुना
::मैंने जीवन का अफसाना।
मंजिल थी मालूम न मुझको
::और पन्थ का ज्ञान नहीं,
जाना था निश्चय, इससे
::चुपचाप पड़ा मुझको जाना।
:::(१९)
चलना पड़ा बहुत, देखा था
::जबतक यह संसार नहीं,
इस घाटी में भी रुक पाया
::मेरा यह व्यापार नहीं।
कूदूँगा निर्वाण - जलधि में
::कभी पार कर इस जग को,
जब तक शेष पन्थ, तब तक
::विश्राम नहीं, उद्धार नहीं।
:::(२०)
दिये नयन में अश्रु, हॄदय में
::भला किया जो प्यार दिया,
मुझमें मुझे मग्न करने को
::स्वप्नों का संसार दिया।
सब-कुछ दिया मूक प्राणों की
::वंशी में वाणी देकर,
पर क्यों हाय, तृषा दी, उर में
::भीषण हाहाकार दिया?
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