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द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - ३

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(१२)
तारे लेकर जलन, मेघ
आँसू का पारावार लिए,
संध्या लिए विषाद, पुजारिन
उषा विफल उपहार लिये,
हँसे कौन? तुझको तजकर जो
चला वही हैरान चला,
रोती चली बयार, हृदय में
मैं भी हाहाकार लिये।

(१३)
देखें तुझे किधर से आकर?
नहीं पन्थ का ज्ञान हमें।
बजती कहीं बाँसुरी तेरी,
बस, इतना ही भान हमें।
शिखरों से ऊपर उठने
देती न हाय, लघुता अपनी;
मिट्टी पर झुकने देता है
देव, नहीं अभिमान हमें।

(१४)
एक चाह है, जान सकूँ, यह
छिपा हुआ दिल में क्या है।
सुनकर भी न समझ पाया
इस आखर अनमिल में क्या है।
ऊँचे-टीले पन्थ सामने,
अब तक तो विश्रान नहीं,
यही सोच बढ़ता जाता हूँ,
देखूँ, मंजिल में क्या है।

(१५)
चलने दे रेती खराद की,
रुके नहीं यह क्रम तेरा।
अभी फूल मोती पर गढ़ दे,
अभी वृत्त का दे घेरा।
जीवन का यह दर्द मधुर है,
तू न व्यर्थ उपचार करे।
किसी तरह ऊषा तक टिमटिम
जलने दे दीपक मेरा।

(१६)
क्या पूछूँ खद्योत, कौन सुख
चमक - चमक छिप जाने में?
सोच रहा कैसी उमंग है
जलते - से परवाने में।
हाँ, स्वाधीन सुखी हैं, लेकिन,
ओ व्याधा के कीर, बता,
कैसा है आनन्द जाल में
तड़प - तड़प रह जाने में?

(१७)
छूकर परिधि-बन्ध फिर आते
विफल खोज आह्वान तुम्हें।
सुरभि-सुमन के बीच देव,
कैसे भाता व्यवधान तुम्हें?
छिपकर किसी पर्ण-झुरमुट में
कभी - कभी कुछ बोलो तो;
कब से रहे पुकार सत्य के
पथ पर आकुल गान तुम्हें!

(१८)
देख न पाया प्रथम चित्र, त्यों
अन्तिम दृश्य न पहचाना,
आदि-अन्त के बीच सुना
मैंने जीवन का अफसाना।
मंजिल थी मालूम न मुझको
और पन्थ का ज्ञान नहीं,
जाना था निश्चय, इससे
चुपचाप पड़ा मुझको जाना।

(१९)
चलना पड़ा बहुत, देखा था
जबतक यह संसार नहीं,
इस घाटी में भी रुक पाया
मेरा यह व्यापार नहीं।
कूदूँगा निर्वाण - जलधि में
कभी पार कर इस जग को,
जब तक शेष पन्थ, तब तक
विश्राम नहीं, उद्धार नहीं।

(२०)
दिये नयन में अश्रु, हॄदय में
भला किया जो प्यार दिया,
मुझमें मुझे मग्न करने को
स्वप्नों का संसार दिया।
सब-कुछ दिया मूक प्राणों की
वंशी में वाणी देकर,
पर क्यों हाय, तृषा दी, उर में
भीषण हाहाकार दिया?

(२१)
कितनों की लोलुप आँखों ने
बार - बार प्याली हेरी।
पर, साकी अल्हड़ अपनी ही
इच्छा पर देता फेरी।
हो अधीर मैंने प्याली को
थाम मधुर रस पान किया,
फिर देखा, साकी मेरा था,
प्याली औ’ दुनिया मेरी।

(२२)
विभा, विभा, ओ विभा हमें दे,
किरण! सूर्य! दे उजियाली।
आह! युगों से घेर रही
मानव-शिशु को रजनी काली।
प्रभो! रिक्त यदि कोष विभा का
तो फिर इतना ही कर दे;
दे जगती को फूँक, तनिक
झिलमिला उठे यह अँधियाली।

(२३)
तू, वह, सब एकाकी आये,
मैं भी चला अकेला था;
कहते जिसे विश्व, वह तो
इन असहायों का मेला था।
पर, कैसा बाजार? विदा-दिन
हम क्यों इतना लाद चले?
सच कहता हूँ, जब आया
तब पास न एक अधेला था।

(२४)
मेरे उर की कसक हाय,
तेरे मन का आनन्द हुई।
इन आँखों की अश्रुधार ही
तेरे हित मकरन्द हुई।
तू कहता ’कवि’ मुझे, किन्तु,
आहत मन यह कैसे माने?
इतना ही है ज्ञात कि मेरी
व्यथा उमड़कर छन्द हुई।