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पर क्यों हाय, तृषा दी, उर में
::भीषण हाहाकार दिया?
 
:::(२१)
कितनों की लोलुप आँखों ने
::बार - बार प्याली हेरी।
पर, साकी अल्हड़ अपनी ही
::इच्छा पर देता फेरी।
हो अधीर मैंने प्याली को
::थाम मधुर रस पान किया,
फिर देखा, साकी मेरा था,
प्याली औ’ दुनिया मेरी।
 
:::(२२)
विभा, विभा, ओ विभा हमें दे,
::किरण! सूर्य! दे उजियाली।
आह! युगों से घेर रही
::मानव-शिशु को रजनी काली।
प्रभो! रिक्त यदि कोष विभा का
::तो फिर इतना ही कर दे;
दे जगती को फूँक, तनिक
::झिलमिला उठे यह अँधियाली।
 
:::(२३)
तू, वह, सब एकाकी आये,
::मैं भी चला अकेला था;
कहते जिसे विश्व, वह तो
::इन असहायों का मेला था।
पर, कैसा बाजार? विदा-दिन
::हम क्यों इतना लाद चले?
सच कहता हूँ, जब आया
::तब पास न एक अधेला था।
 
:::(२४)
मेरे उर की कसक हाय,
::तेरे मन का आनन्द हुई।
इन आँखों की अश्रुधार ही
::तेरे हित मकरन्द हुई।
तू कहता ’कवि’ मुझे, किन्तु,
::आहत मन यह कैसे माने?
इतना ही है ज्ञात कि मेरी
::व्यथा उमड़कर छन्द हुई।
</poem>
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