जीवन दे मुस्कान जिसे, क्यों
::उसे कहो दे अश्रु मरण?
:::(४४)
जाग प्रिये! यह अमा स्वयं
::बालारुण-मुकुट लिये आई,
जल, थल, गगन, पवन, तृण, तरु पर
::अभिनव एक विभा छाई;
मधुपों ने कलियों को पाया,
::किरणें लिपट पड़ीं जल से,
ईर्ष्यावती निशा अब बीती,
::चकवा ने चकवी पाई।
:::(४५)
दो अधरों के बीच खड़ी थी
::भय की एक तिमिर-रेखा,
आज ओस के दिव्य कणों में
::धुल उसको मिटते देखा।
जाग, प्रिये! निशि गई, चूमती
::पलक उतरकर प्रात-विभा,
जाग, लिखें चुम्बन से हम
::जीवन का प्रथम मधुर लेखा।
:::(४६)
अधर-सुधा से सींच, लता में
::कटुता कभी न आयेगी,
हँसनेवाली कली एक दिन
::हँसकर ही झर जायेगी।
जाग रहे चुम्बन में तो क्यों
::नींद न स्वप्न मधुर होगी?
मादकता जीवन की पीकर
::मृत्यु मधुर बन जायेगी।
:::(४७)
और नहीं तो क्यों गुलाब की
::गमक रही सूखी डाली?
सुरा बिना पीते मस्ताने
::धो-धो क्यों टूटी प्याली?
उगा अरुण प्राची में तो क्यों
::दिशा प्रतीची जाग उठी?
चूमा इस कपोल पर, उसपर
::कैसे दौड़ गई लाली?
:::(४८)
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