द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - ६
(४०)
कुछ सुन्दरता छिपी मुकुल में,
कुछ हँसते - से फूलों में;
कुछ सुहागिनी के कपोल,
काजल, सिन्दूर, दुकूलों में।
कविते, भूल न इस उपवन पर,
मृत - कुसुमों की याद करे;
वह होगी कैसी छवि जो
छिप रही चिता की धूलों में?
(४१)
आह, चाहता मैं क्यों जाये
जग से कभी वसन्त नहीं?
आशा - भरे स्वर्ण - जीवन का
किसी रोज हो अन्त नहीं?
था न कभी, तो फिर क्या चिन्ता
आगे कभी नहीं हूँगा?
यदि पहले था, तो क्या हूँगा
अब से अरे, अनन्त नहीं?
(४२)
भू की झिलमिल रजत-सरित ही
घटा गगन की काली है;
मेंहदी के उर की लाली ही
पत्तों में हरियाली है;
जुगुनू की लघु विभा दिवा में
कलियों की मुस्कान हुई;
उडु को ज्योति उसी ने दी,
जिसने निशि को अँधियाली है।
(४३)
जीवन ही कल मृत्यु बनेगा,
और मृत्यु ही नव-जीवन,
जीवन-मृत्यु-बीच तब क्यों
द्वन्द्वों का यह उत्थान-पतन?
ज्योति-बिन्दु चिर नित्य अरे, तो
धूल बनूँ या फूल बनूँ,
जीवन दे मुस्कान जिसे, क्यों
उसे कहो दे अश्रु मरण?
(४४)
जाग प्रिये! यह अमा स्वयं
बालारुण-मुकुट लिये आई,
जल, थल, गगन, पवन, तृण, तरु पर
अभिनव एक विभा छाई;
मधुपों ने कलियों को पाया,
किरणें लिपट पड़ीं जल से,
ईर्ष्यावती निशा अब बीती,
चकवा ने चकवी पाई।
(४५)
दो अधरों के बीच खड़ी थी
भय की एक तिमिर-रेखा,
आज ओस के दिव्य कणों में
धुल उसको मिटते देखा।
जाग, प्रिये! निशि गई, चूमती
पलक उतरकर प्रात-विभा,
जाग, लिखें चुम्बन से हम
जीवन का प्रथम मधुर लेखा।
(४६)
अधर-सुधा से सींच, लता में
कटुता कभी न आयेगी,
हँसनेवाली कली एक दिन
हँसकर ही झर जायेगी।
जाग रहे चुम्बन में तो क्यों
नींद न स्वप्न मधुर होगी?
मादकता जीवन की पीकर
मृत्यु मधुर बन जायेगी।
(४७)
और नहीं तो क्यों गुलाब की
गमक रही सूखी डाली?
सुरा बिना पीते मस्ताने
धो-धो क्यों टूटी प्याली?
उगा अरुण प्राची में तो क्यों
दिशा प्रतीची जाग उठी?
चूमा इस कपोल पर, उसपर
कैसे दौड़ गई लाली?
(४८)
रति-अनंग-शासित धरणी यह,
ठहर पथिक, मधु रस पी ले;
इन फूलों की छाँह जुड़ा ले,
कर ले शुष्क अधर गीले;
आज सुमन-मण्डप में सोकर
परदेशी! निज श्रान्ति मिटा;
चरण थके होंगे, तेरे पथ
बड़े अगम, ऊँचे-टीले।
(४९)
कुसुम-कुसुम में प्रखर वेदना,
नयन-अधर में शाप यहाँ,
चन्दन में कामना-वह्नि, विधु
में चुम्बन का ताप यहाँ।
उर-उर में बंकिम धनु, दृग-दृग
में फूलों के कुटिल विशिख;
यह पीड़ा मधुमयी, मनुज
बिंधता आ अपने-आप यहाँ।
(५०)
यहाँ लता मिलती तरु से
मधु कलियाँ हमें पिलाती हैं,
पीती ही रहतीं यौवन-रस,
आँखें नहीं अघाती हैं।
कर्मभूमि के थके श्रमिक को
इस निकुंज की मधुबाला
एक घूँट में श्रान्ति मिटाकर
बेसुध, मत्त बनाती है।
(५१)
यात्री हूँ अति दूर देश का,
पल-भर यहाँ ठहर जाऊँ,
थका हुआ हूँ, सुन्दरता के
साथ बैठ मन बहलाऊँ;
’एक घूँट बस और’--हाय रे,
ममता छोड़ चलूँ कैसे?
दूर देश जाना है, लेकिन,
यह सुख रोज कहाँ पाऊँ?
(५२)
’दूर-देश’--हाँ ठीक, याद है,
यह तो मेरा देश नहीं;
इससे होकर चलो, यहीं तक
रुकने का आदेश नहीं।
बजा शंख, कारवाँ चला,
साकी, दे विदा, चलूँ मैं भी,
कभी-कभी हम गिन पाते हैं
प्रिये! मीन औ’ मेष नहीं।