कुछ थोड़ा-सा मांस प्राण का
::छिपा रहा कंकाल सखी!
:::(५६)
बचे गहन से चाँद, छिपाऊँ
::किधर? सोच चल होता हूँ,
मौत साँस गिनती तब भी जब
::हृदय लगाकर सोता हूँ।
दया न होगी हाय, प्रलय को
::इस सुन्दर मुखड़े पर भी,
जिसे चूम हँसती है दुनिया,
::उसे देख मैं रोता हूँ।
:::(५७)
जाग, देख फिर आज बिहँसती
::कल की वही उषा आई,
कलियाँ फिर खिल उठीं, सरित पर
::परिचित वही विभा छाई;
रंजित मेघों से मेदुर नभ
::उसी भाँति फिर आज हँसा,
भू पर, मानों, पड़ी आज तक
::कभी न दुख की परछाईं।
:::(५८)
रँगने चलीं ओस-मुख किरणें
::खोज क्षितिज का वातायन,
जानें, कहाँ चले उड़-उड़कर
::फूलों की ले गन्ध पवन;
हँसने लगे फूल, किस्मत पर
::रोने का अवकाश कहाँ?
बीते युग, पर, भूल न पाई
::सरल प्रकृति अपना बचपन।
:::(५९)
मैं भी हँसूँ फूल-सा खिलकर?
::शिशु अबोध हो लूँ कैसे?
पीकर इतनी व्यथा, कहो,
::तुतली वाणी बोलूँ कैसे?
जी करता है, मत्त वायु बन
::फिरूँ; कुंज में नृत्य करूँ,
पर, हूँ विवश हाय, पंकज का
::हिमकण हूँ, डोलूँ कैसे?
:::(६०)
शान्त पाप! जग के जंगल में
::रो मेरे कवि और नहीं,
सुधा-सिक्त पल ये, आँसू का
::समय नहीं, यह ठौर नहीं;
अन्तर्जलन रहे अन्तर में,
::आज वसन्त-उछाह यहाँ;
आँसू देख कहीं मुरझें
::बौरे आमों के मौर नहीं।
:::(६१)
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